सोमवार, 17 नवंबर 2014

दो पल का जीवन मांग रहें हैं

वचन दिया था गीता में ‘मैं आऊंगा’, पर तू होता नहीं अवतीर्ण है।
यहाँ आज जब मानवता के प्रासाद हो रहे जीर्ण शीर्ण हैं।
मनुष्य नहीं दिखते यहाँ, यद्यपि नगर ये जनाकीर्ण हैं।
होते मानव शेष यहाँ तो क्यों अस्त्रों शस्त्रों से, पृथ्वी का वक्ष होता विदीर्ण है।
हो गया है दैत्यों का राज्य फिर से, हर जीव यहाँ भयभीत है।
सूनी प्रकृति ,सूने जंगल, सब गाते मृत्यु के गीत हैं।
देखता नहीं तेरी धरती को, क्या हुआ तू अवचेत है।
बांटकर तुझे लड़ते आपस में, कहा तूने था कि तू अद्वैत है।

निरपराधों पर आग बरसाते, कहतें है ईश्वर कि आज्ञा।
अवचेत होकर दे भी हो तूने, तो क्या उनके पास नहीं है प्रज्ञा।
भूख प्यास से नन्हे जीवों का मुख, अब हो रहा है विवर्ण।
विश्व के नक्कारों में दबती पुकारें उनकी, क्या तेरे पास नहीं है कर्ण।
माना कि तुझे मानें न मानें, इसकी तुझे परवाह नहीं।
पर क्या धरती की रक्षा की तुझे रही कोई चाह नहीं।
माना कि हम समझ न पाए तुझे कभी, तेरी नहीं कहीं भी थाह है।
पर मदद कि गुहार लगायें कहाँ, तू ही सबका अल्लाह है।

धन ,धान्य, धर्मं, द्युति माँगना, मेरा नहीं स्वभाव है।
कंचन की कामना करूँ कैसे फिर, यहाँ भोजन का अभाव है।
तेरी आवश्यकता आ पड़ी अब हमें, मानव स्वयं सहाय्य में नहीं समर्थ है।
पर तू उदासीन बैठा है क्षीर में, इसका क्या ये अर्थ है।
निर्माण और पोषण करके विश्व का, अब यदि विनाश को प्रबुद्ध तू।
स्वयं ही नष्ट कर मानव जाति को, धरती को कर दे शुद्ध तू।
पर वर्त्तमान विधि उचित नहीं, न होने दे आपस में युद्ध तू।
कुचल दे धूमकेतु से हमें, यदि हमसे है क्रुद्ध तू।
पर इस अनल का कर दे शमन, तू कर दे पृथ्वी पुत्रों का उद्धार।
मृत्यु से पहले थोड़ा जी लें हम, ये अस्वस्थ मृत्यु नहीं स्वीकार।
नाश से पहले फलना फूलना सीख लें, हम जीवन जीना भूल गए हैं।
ये पल पल की मृत्यु बहुत हो चुकी, दो पल का जीवन मांग रहें हैं।

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